जन्माष्टमी का पर्व, इस धरा पर भगवान् कृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, यह प्रतिवर्ष हमें स्मरण कराता है कि हम अपने जीवन तथा अपने समस्त कर्मों को ईश्वर को बार-बार समर्पित करते रहें। भगवान् कृष्ण का यह अमर संदेश हम भगवद्गीता के माध्यम से सीखते हैं : “अपने मन को मुझ में लीन करो; मेरे भक्त बनो; सब कुछ मुझ पर छोड़ दो; मुझे प्रणाम करो। तुम मेरे प्रिय हो, इसलिए मैं यह सत्य वचन देता हूँ :- तुम मुझे प्राप्त करोगे!” (ईश्वर-अर्जुन संवाद : श्रीमद्भगवद्गीता XVIII:65)
अतः, जन्माष्टमी का, और वस्तुतः भगवान् विष्णु के महान् अवतार भगवान् कृष्ण के जीवन का सच्चा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन और अपने समस्त कर्मों के फल केवल ईश्वर को ही समर्पित करने के प्रयोजन का बोध होना चाहिए।
“जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वहाँ विजय है!” ये अमर शब्द, जो भारत में सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं, हमें अपनी जीवन-यात्रा के दौरान, हमारे मार्ग में निरंतर आने वाली सभी परीक्षाओं और कठिनाइयों के बावजूद, अपने मन को सदैव प्रभु पर केंद्रित करने के लिए प्रेरित करते हैं।
श्री श्री परमहंस योगानन्दजी, जो विश्वविख्यात आध्यात्मिक गौरव-ग्रंथ ‘योगी कथामृत’ के लेखक हैं, ने भगवद्गीता पर दो खण्डों वाला एक ग्रंथ ‘ईश्वर-अर्जुन संवाद’ लिखा। भगवद्गीता पर लिखी इस गहन आध्यात्मिक व्याख्या के ‘परिचय’ में योगानन्दजी कहते हैं : “ईश्वर की ओर वापसी के पथ पर व्यक्ति जहाँ कहीं भी हो, गीता यात्रा के उस खण्ड पर अपना प्रकाश डालेगी।”

योगानन्दजी भगवद्गीता के मूलभूत संदेश पर अपनी व्याख्या में इस बात पर बल देते हैं कि कुरुक्षेत्र के युद्ध और युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन की निराशा का वास्तविक महत्त्व वस्तुतः प्रत्येक मनुष्यका अपनी इच्छाओं और आदतों को त्यागने और धर्मयुद्ध लड़ने, जिसका अन्तिम परिणाम आत्मा की मुक्ति होगा, की अनिच्छा है।
भगवद्गीता में महान् योद्धा अर्जुन का भगवान् श्रीकृष्ण से विनती करने का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है,“मेरी आंतरिक प्रकृति दुर्बल सहानुभूति और दया से ढकी होने, और मेरा मन कर्त्तव्य के विषय में भ्रमित होने के कारण, मैं आपसे विनती करता हूँ कि कृपया मुझे परामर्श दें कि मेरे लिए किस मार्ग का अनुसरण करना सर्वोत्तम है। मैं आपका शिष्य हूँ। मैं आपकी, शरण में हूँ, मुझे शिक्षा दीजिये।” (ईश्वर-अर्जुन संवाद: श्रीमद्भगवद्गीता II:07)
इसके बाद भगवान् कृष्ण गीता का वह अमर उपदेश प्रदान करते हैं, जो वास्तव में मानवता का उत्थान करता है, क्योंकि यह स्वयं भगवान् द्वारा प्रदत्त है, और निस्संदेह, भगवान् कृष्ण द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक शब्द लौकिक मूल्य से परे है। उसमें भगवान् कृष्ण, अर्जुन को अत्यंत दृढ़तापूर्वक समझाते हैं : “योगी को शरीर पर नियंत्रण करने वाले तपस्वियों, ज्ञान के पथ पर चलने वालों से भी अथवा कर्म के पथ पर चलने वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है; हे अर्जुन, तुम योगी बनो!” (ईश्वर-अर्जुन संवाद: श्रीमद्भगवद्गीता VI:46)
भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता, जो मानवजाति के लिए विदित सर्वोच्च आध्यात्मिक विज्ञानों में से एक ‘क्रियायोग’ का दो बार उल्लेख किया है। यही ‘क्रियायोग’ परमहंस योगानन्द की शिक्षाओं का भी मूल तत्त्व है, जिसका प्रशिक्षण उन्हें अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि से मिला था। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि स्वयं परम पूज्य योगावतार लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे, जो स्वयं एक महान् अवतार, महावतार बाबाजी के शिष्य थे।
योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया, वाईएसएस, जिसकी स्थापना परमहंस योगानन्दजी ने की थी, मुद्रित और डिजिटल सामग्री के माध्यम से इन महान् गुरुओं की शिक्षाओं का प्रसार करती है। वाईएसएस की ‘आदर्श जीवन’ पाठमाला इस प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
‘क्रियायोग’ के वैज्ञानिक मार्ग का अनुसरण करके, किसी भी युग, किसी भी राष्ट्रीयता और किसी भी पृष्ठभूमि के सत्यान्वेषी आध्यात्मिक मुक्ति और अंततः, ईश्वर के साथ एकात्मता की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।
तो यही, जन्माष्टमी की सच्ची महत्ता है। जन्माष्टमी हमें अत्यंत दृढ़ता से यह स्मरण कराती है कि, हमारे मन में प्रभु के साथ एकाकार होने की उत्कट अभिलाषा हो, और हम अपने जीवन की यात्रा को इसी लक्ष्य की ओर ले जाने का प्रयास करें।
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लेखक : विवेक अत्रे