श्री श्री परमहंस योगानन्द की स्थायी विरासत 

(132वीं जयन्ती पर विशेष)

0

“हमारा संसार एक स्वप्न के अन्दर एक स्वप्न है; आपको यह अनुभव करना चाहिए कि ईश्वर-प्राप्ति ही एकमात्र लक्ष्य है, एकमात्र उद्देश्य है जिसके लिए आप यहां हैं।” — श्री श्री परमहंस योगानन्द।

प्रिय गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्द प्रायः कहा करते थे कि मानव जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य ईश्वर की खोज करना है। अन्य सब कुछ प्रतीक्षा कर सकता है परन्तु ईश्वर की खोज नहीं।
योगानन्दजी का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर में धर्मनिष्ठ बंगाली माता-पिता ज्ञानप्रभा और भगवतीचरण घोष के परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम मुकुन्दलाल घोष था। जब ज्ञानप्रभा अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के पास अपनी गोद में शिशु मुकुन्द को लेकर गईं, तो महान् सन्त ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, “छोटी माँ, तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन की भाँति वह अनेक आत्माओं को ईश्वर के राज्य में ले जाएगा।” कालान्तर में यह पवित्र भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।
बचपन में मुकुन्द माँ काली से गहन प्रार्थना और ध्यान किया करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर, वे एक गहन दिवास्वप्न में डूब गए और उनकी अन्तर्दृष्टि के सामने एक प्रखर प्रकाश कौंध गया। वे इस दिव्य प्रकाश को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने पूछा, “यह अद्भुत् आलोक क्या है?” उन्हें इस प्रश्न का एक दैवी प्रत्युत्तर प्राप्त हुआ, “मैं ईश्वर हूँ। मैं प्रकाश हूँ।” योगानन्दजी ने अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में इस अलौकिक अनुभव का वर्णन किया है, “वह ईश्वरीय आनन्द क्रमशः क्षीण होता गया पर मुझे उससे ब्रह्म की खोज करने की प्रेरणा की स्थायी विरासत प्राप्त हुई।”
सन् 1910 में, सत्रह वर्ष की आयु में, उन्होंने अपनी ईश्वर की खोज की आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ की। यह खोज उन्हें उनके पूज्य गुरुदेव स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के पास ले गई। अपने गुरु के प्रेमपूर्ण परन्तु कठोर मार्गदर्शन में, उन्होंने स्वामी परम्परा के अन्तर्गत पवित्र संन्यास का आलिंगन किया। वे अपने सन्यासी नाम परमहंस योगानन्द से प्रसिद्ध हुए, जो ईश्वर के साथ एकत्व के माध्यम से सर्वोच्च आनन्द की प्राप्ति का प्रतीक है।
उन्होंने सन् 1917 में रांची में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) और सन् 1920 में लॉस एंजेलिस में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की। इन दोनों संगठनों का प्राथमिक उद्देश्य है जीवन के परम उद्देश्य—अर्थात् आत्मा का परमात्मा से साथ एकत्व—को साकार करने के लिए “क्रियायोग” ध्यान प्रविधियों के प्राचीन आध्यात्मिक विज्ञान का प्रसार करना। आकांक्षी साधक योगदा सत्संग आश्रमों से अनुरोध करके गृह-अध्ययन पाठमाला के रूप में स्वयं महान् गुरुदेव द्वारा प्रदान की गयी इन पवित्र शिक्षाओं को प्राप्त कर सकते हैं।
योगानन्दजी ने अमेरिका में रहते हुए उपरोक्त भारतीय आध्यात्मिक साधना के ज्ञान के प्रसार के लिए अथक प्रयत्न किया, जिसका अत्यधिक स्वागत किया गया और सराहना की गयी। ईश्वर की अपनी खोज को सबके साथ साझा करने की लालसा से प्रेरित होकर उन्होंने अत्यन्त प्रसिद्ध एवं अति उत्कृष्ट आध्यात्मिक पुस्तक, “योगी कथामृत” लिखने का निर्णय किया, जिसने सम्पूर्ण विश्व में असंख्य व्यक्तियों को गहनता से प्रभावित किया है और इस पुस्तक का 50 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
उनकी अतिव्यापक शिक्षाओं ने लाखों लोगों को गहनता से प्रभावित किया है। उनकी शिक्षाओं में विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला सम्मिलित है तथा वे विशेष रूप से निम्न विषयों पर केन्द्रित हैं : (1) “क्रियायोग” ध्यान विज्ञान, जो मनुष्य की चेतना को अनुभूति के उच्चतर स्तरों तक ले जाने वाली राजयोग की एक उन्नत प्रविधि है; (2) सभी सच्चे धर्मों में विद्यमान गहन एकता; तथा (3) शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण को एक साथ ध्यान में रखते हुए सन्तुलित जीवन जीने के उपाय।
पूज्य जगद्गुरु की गिनती अब सम्पूर्ण विश्व में प्राचीन भारतीय शिक्षाओं के सबसे प्रभावशाली दूतों में की जाती है। उनका जीवन और शिक्षाएँ सभी क्षेत्रों तथा सभी जातियों, संस्कृतियों, और मतों के व्यक्तियों के लिए प्रेरणा एवं उत्साह का एक शाश्वत स्रोत हैं।
अधिक जानकारी : yssi.org
लेखिका: रेणु सिंह परमार

Get real time updates directly on you device, subscribe now.

Leave A Reply

Your email address will not be published.