गीता जयन्ती — श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षाओं पर पुनर्विचार करने का एक अवसर

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श्री श्री परमहंस योगानन्द द्वारा गीता की व्याख्या “ईश्वर-अर्जुन संवाद” हमें गहन शिक्षा प्रदान करती है

श्रीमद्भगवद्गीता मात्र एक पुस्तक ही नहीं, मात्र एक शास्त्र ही नहीं, अपितु वस्तुतः यह स्वयं जीवन का सार है और अपने शुद्धतम स्वरूप में सत्य का संक्षिप्तीकरण है। कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में अत्यन्त तीव्रतापूर्वक एकाग्र योद्धा अर्जुन को प्रदान किया गया भगवान् कृष्ण का कालातीत सन्देश वास्तव में अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक मनुष्य के लिए उपदेश था और है।
माया द्वारा नियंत्रित इस संसार द्वारा निर्मित घटनाओं, तनावों, और दबावों के बाहुल्य को केवल मन के आन्तरिक संघर्ष पर विजय प्राप्त करके ही नियन्त्रित किया जा सकता है। तथा गीता किसी भी निष्ठावान् साधक का मार्गदर्शन करती है, चाहे वह कितना ही अधिक उन्नत क्यों न हो।

विश्वविख्यात पुस्तक “योगी कथामृत” के लेखक, श्री श्री परमहंस योगानन्दजी ने गीता की एक गहन अंतर्ज्ञानात्मक व्याख्या भी लिखी है, जो योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) द्वारा “ईश्वर-अर्जुन संवाद” के नाम से दो खण्डों की एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गई है। यह पुस्तक भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के समक्ष प्रतिपादित ज्ञान के सच्चे अर्थ की एक विस्तृत एवं व्यावहारिक व्याख्या है। अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषाओं में प्रकाशित, “ईश्वर-अर्जुन संवाद” एक अद्भुत पुस्तक है जो किसी भी ग्रहणशील पाठक को गीता के अन्तर्निहित सन्देश की गहन शिक्षा प्रदान करती है।

योगानन्दजी ने सामान्य मानव जाति के लिए गीता के गूढ़ सन्देश की अभूतपूर्व व्याख्या की है। उन्होंने गीता में निहित धर्मपरायण शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले पाण्डवों और नकारात्मक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कौरवों के मध्य युद्ध के गहन अर्थ को स्पष्ट किया है। महाभारत का प्रत्येक चरित्र किसी न किसी अच्छे या बुरे गुण का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए भीष्म “अहंकार” के प्रतीक हैं जिनके ऊपर किसी प्रकार की आध्यात्मिक प्रगति से पूर्व विजय प्राप्त करना आवश्यक है। हमारे लिए इस धर्म युद्ध को लड़ना आवश्यक है, और हमें अपनी अनिच्छा, अपने आलस्य, और इच्छाओं के प्रति अपनी आसक्ति को त्यागना होगा जो हमारी आत्म-साक्षात्कार की खोज में सदैव बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं।

दूसरे शब्दों में, जैसा कि योगानन्दजी बताते हैं, जब तक हम ईश्वर को प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हम कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकते हैं। और ऐसा करने का एकमात्र उपाय है योग, ध्यान और सम्यक् कर्म के मार्ग का अनुसरण करना।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने दो बार विशेष रूप से क्रियायोग विज्ञान का उल्लेख किया है। आधुनिक युग में योगानन्दजी ने इस दुर्लभ और शक्तिशाली विज्ञान को सर्वाधिक व्यापक ढंग से लोकप्रियता प्रदान की ताकि सभी सच्चे साधक निष्ठापूर्वक इसका अभ्यास कर सकें। योगानन्दजी ने स्पष्ट रूप से बताया है कि यदि गहन भक्ति के साथ उचित ढंग से क्रियायोग का अभ्यास किया जाए तो साधक अपने उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।

भारतीय आध्यात्मिक लोकाचार के ज्ञान के प्रसार में योगानन्दजी का अपार योगदान और सम्पूर्ण विश्व में लाखों साधकों के लिए अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु तीव्र गति से प्रगति करने का मार्ग प्रशस्त करने वाली उनकी मार्गदर्शक शिक्षाओं की कोई बराबरी नहीं है। योगानन्दजी ने ईश्वर के प्रेम और सादगी की अत्यधिक स्पष्ट और व्यापक ढंग से व्याख्या की है।

योगानन्दजी द्वारा स्थापित संस्थाऐं, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (भारत में सन् 1917 से), और सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (पश्चिम में सन् 1920 से) सम्पूर्ण विश्व में क्रियायोग के पवित्र विज्ञान और भारत की पवित्र शिक्षाओं के प्रसार में एक प्रशंसनीय भूमिका निभा रही हैं।

इस वर्ष गीता जयन्ती 3 दिसम्बर को मनाई जा रही हैं। अनेक अर्थों में, गीता जयन्ती हम सब को पुनः याद दिलाती है कि हमें दृढ़संकल्प के साथ जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्ध को जीतने का प्रयास करना चाहिए। तथा योगानन्दजी की गीता की व्याख्या हमें दिखाती है कि हमारे लिए क्यों अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर प्रयत्न करना आवश्यक है। कृपया अधिक जानकारी के लिए देखें yssofindia.org

लेखक: विवेक अत्रे

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